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प꣢र्यू꣣ षु꣡ प्र ध꣢꣯न्व꣣ वा꣡ज꣢सातये꣣ प꣡रि꣢ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ स꣣क्ष꣡णिः꣢ । द्वि꣣ष꣢स्त꣣र꣢ध्या꣢ ऋण꣣या꣡ न꣢ ईरसे ॥१३६४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः । द्विषस्तरध्या ऋणया न ईरसे ॥१३६४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । ऊ꣡ । सु꣢ । प्र । ध꣣न्व । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । प꣡रि꣢꣯ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣣क्ष꣡णिः꣢ । स꣣ । क्ष꣡णिः꣢꣯ । द्वि꣣षः꣢ । त꣣र꣡ध्यै꣢ । ऋ꣣णयाः꣢ । ऋ꣣ण । याः꣢ । नः꣢ । ईरसे ॥१३६४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1364 | (कौथोम) 6 » 1 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 11 » 2 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४२८ क्रमाङ्क पर अपने अन्तरात्मा और वीर पुरुष के प्रोत्साहन के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ परमात्मा का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाले जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! आप (वाजसातये) बल देने के लिए, हमें (सु) भली-भाँति (परि प्र धन्व) चारों ओर से प्राप्त होओ। (सक्षणिः) विघ्नों के विनाशक आप (वृत्राणि) जीवनमार्ग वा योगमार्ग में आये हुए विघ्नों पर (परि प्र धन्व) चारों ओर से आक्रमण कर दो। (ऋणयाः) हमारे ऋषिऋण-देवऋण-पितृऋण को तथा अन्य ऋणों को चुकवानेवाले आप (द्विषः) द्वेषवृत्तियों को (तरध्यै) परास्त करने के लिए (नः ईरसे) हमें प्राप्त होवो। तैत्तिरीयसंहिता में तीन ऋण गिनाते हुए कहा गया है कि उत्पन्न होता हुआ ब्राह्मण तीन ऋणों से ऋणी होता है। ऋषियों के प्रति ब्रह्मचर्य से, देवों के प्रति यज्ञ से और पितृजनों के प्रति प्रजा से। जब वह आचार्याधीन ब्रह्मचर्यवास करता है, यज्ञ करता है और पुत्रवान् हो जाता है तब क्रमशः इन ऋणों से छूट जाता है (तै० सं० ६।३।१०।५) ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य दूसरों की सहायता का उपयोग करके उनके प्रति ऋणी हो जाता है। माता-पिता, गुरुजन, समाज, राष्ट्र तथा अन्यों के प्रति उसके जो ऋण होते हैं, उन्हें परमेश्वर की प्रेरणा से वह उपकारस्मरणपूर्वक सधन्यवाद चुका देता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४२८ क्रमाङ्के स्वान्तरात्मनो वीरपुरुषस्य च विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे पवमान सोम पवित्रकारिन् जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! त्वम् (वाजसातये) बलप्रदानाय, अस्मान् (सु) सम्यक् (परि प्र धन्व उ) परिप्राप्नुहि खलु, (सक्षणिः) विघ्नविनाशकः त्वम् (वृत्राणि) जीवनमार्गे योगमार्गे वा समागतान् विघ्नान् (परि प्र धन्व) परितः आक्रामस्व। (ऋणयाः) अस्माकं ऋषिऋण-देवऋण-पितृऋणानाम् अन्येषां च ऋणानां यापयिता त्वम् (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (तरध्यै) तरीतुम् (नः ईरसे) अस्मान् प्राप्नुहि ॥ ऋणानि च त्रीणि यथा—[जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणैर्ऋणवान् जायते। ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः, प्रजया पितृभ्यः, एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी (तै० सं० ६।३।१०।५।)] इति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्योऽन्येषां सहायतामुपयुज्य तान् प्रति ऋणवान् जायते। मातापितरौ गुरून् समाजं राष्ट्रमन्यांश्च प्रति तस्य यानि ऋणानि भवन्ति तानि परमेश्वरप्रेरणया स सोपकारस्मरणं सधन्यवादं यापयति ॥१॥